रुझान कितने समय तक चलते हैं?

उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या रिज़र्व सीटों में छिपी है सत्ता की चाबी
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में विधानसभा की आरक्षित सीटें हर राजनीतिक पार्टी के लिए काफ़ी अहम मानी जाती हैं. इसकी वजह है कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में जिस पार्टी ने इन सीटों पर बाज़ी मारी, सरकार उसी पार्टी की बनी.
इस चुनाव में भी राज्य की 86 आरक्षित सीटों पर हर सियासी दल अपने समीकरण तय करने में जुटे हैं. लेकिन सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश की आरक्षित सीटों पर नतीज़ों का इतिहास फिर से खुद को दोहराएगा या नहीं?
इस विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 86 सुरक्षित सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों की हैं. वहीं 2 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं. ये दोनों सीटें राज्य के दक्षिणी-पूर्वी ज़िले सोनभद्र में दुद्धी और ओबरा हैं.
इन सीटों के लिए अब तक लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों का एलान भी कर दिया है.
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सामान्य जातियों के वोट यहां होते हैं निर्णायक
वैसे इन आरक्षित सीटों पर राजनीतिक दलों की रणनीति सामान्य सीटों से अलग होती है, क्योंकि इन सीटों पर उम्मीदवार भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार लगभग सभी जातियों के वोट से तय होती है.
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी के मुताबिक़, ''आरक्षित सीटों पर सभी उम्मीदवार अनुसूचित जाति के होते हैं. इस चलते अनुसूचित जातियों के वोट यहां बंट जाते हैं. ऐसे में दूसरी जातियों के वोट निर्णायक हो जाते हैं. पहले देखा गया है कि जिस पार्टी की लहर होती है, आरक्षित सीटों पर अन्य जातियों के वोट भी उसी पार्टी के खाते में चले जाते हैं''.
ऐसी स्थिति में आरक्षित सीटों पर ग़ैर-अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर राजनीतिक पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है. वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है.
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, ''आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के वोटों का रुझान ही उम्मीदवार की जीत-हार तय करता है. यह देखा गया है कि आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के मतदाताओं के पास विकल्प कम होते हैं. उनके लिए उम्मीदवार से ज़्यादा पार्टी अहम होती है, जबकि सामान्य सीटों पर ऐसा नहीं होता.''
पंजाब में आप की रिकॉर्डतोड़ जीत: आप ने 56 साल में सबसे बड़ी जीत हासिल की, 117 में से 92 सीटों पर कब्जा; कांग्रेस 18 सीटों पर सिमटी
पंजाब में गुरुवार को इतिहास लिखा गया। विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक साथ कई रिकॉर्ड बना दिए। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 में से 92 सीटों पर जीत हासिल करके किसी भी दूसरी पार्टी को मुकम्मल विपक्ष बनने तक का मौका नहीं दिया। यह 56 साल में किसी एक पार्टी की सबसे बड़ी जीत है, जबकि आजादी के बाद आप ने सूबे में तीसरी सबसे बड़ी जीत हासिल की है।
पंजाब में सियासी फेरबदल के कयास तो पहले से थे, लेकिन आज के नतीजों ने बदलाव की नई परिभाषा तय कर दी है। यहां आप ने न सिर्फ बहुमत के आंकड़े को पीछे छोड़ दिया, बल्कि विनिंग सीट्स का ऐसा पहाड़ खड़ा कर दिया कि कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा समेत उसके सहयोगी मिलकर भी आप के लगभग चौथाई हिस्से तक ही पहुंच पा रहे हैं। फाइनल नतीजे यहां देखें..
56 साल में किसी एक पार्टी की सबसे बड़ी जीत
1966 में हरियाणा के अलग होने के बाद पिछले 56 साल में यह पंजाब में किसी एक राजनीतिक पार्टी की सबसे बड़ी जीत है। इससे पहले, 1992 में पंजाब में आतंकवाद के दौरान कांग्रेस ने अपने बूते 87 सीटें जीती थीं, लेकिन उस समय शिरोमणि अकाली दल ने चुनाव का बहिष्कार किया था।
इसके बाद 1997 के चुनाव में अकाली दल और BJP ने मिलकर 93 सीटें जीती थीं। उस समय अकाली दल को 75 और BJP को 18 सीटों पर जीत मिली थी।
आजादी के बाद सिंगल पार्टी की तीसरी बड़ी जीत
1947 में देश के आजाद होने के बाद पंजाब में यह किसी अकेली पार्टी की अपने दम पर तीसरी सबसे बड़ी जीत है। 1952 में पंजाब में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 96 सीटें जीती थीं। तब पंजाब में कुल 126 विधानसभा सीटें थीं।
आजादी के बाद 3 चुनाव में कांग्रेस का दबदबा रहा
1957 में शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब विधानसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया था। इसके बाद चुनाव में कांग्रेस इकलौती बड़ी पार्टी बची थी और उसने प्रदेश की 154 विधानसभा सीटों में से 120 पर जीत दर्ज की थी। इसके 5 साल बाद 1962 के चुनाव में शिरोमणि अकाली दल शामिल तो हुआ, मगर तब भी कांग्रेस प्रदेश की 154 सीटों में से 90 सीटें जीतने में कामयाब रही।
वोट प्रतिशत से समझिए पंजाब का सूरते हाल
पंजाब में बंपर जीत हासिल करने वाली आप वोट प्रतिशत के मामले में भी सबसे आगे है। उसे कुल पड़े वोट में से 44% हिस्सा मिला। वहीं, कांग्रेस को 23% वोट मिले। इधर, अकाली दल ने 18.4% वोट तो हासिल किए, लेकिन पार्टी कुल 5 सीटें भी नहीं जीत पाई।
पंजाब के नए प्रधान होंगे भगवंत मान
ये तो हुए चुनाव से जुड़े आंकड़े, अब पंजाब के होने वाले मुख्यमंत्री को जान लीजिए। पेशे कॉमेडियन रहे भगवंत मान को आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल CM कैंडिडेट प्रोजेक्ट किया था। वे जट्ट सिख कम्युनिटी से आते हैं, जो पंजाब की राजधानी में बेहद असरदार मानी जाती है।
केजरीवाल का यह दांव काम कर गया और पार्टी ने सूबे की 78% सीटों पर एकतरफा जीत दर्ज कर ली। भगवंत मान भी रिकॉर्ड 45 हजार वोट से जीते। उन्होंने धूरी सीट से कांग्रेस के दलबीर गोल्डी को शिकस्त दी।
आप की आंधी में उड़े कांग्रेस-अकाली
पंजाब में आम आदमी पार्टी का जादू ऐसा चला कि मौजूदा CM चरणजीत चन्नी दोनों सीटों पर आप कैंडिडेट से हार गए। वहीं, नवजोत सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी आप के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। 30 साल में पहली बार बादल परिवार का कोई सदस्य विधानसभा चुनाव नहीं जीता। प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल आप कैंडिडेट्स से ही चुनाव हारे।
शपथ समारोह भगत सिंह के गांव में होगा
जीत के बाद भगवंत मान ने पंजाब की जनता को संबोधित किया। वे कल पद की शपथ लेंगे। शपथ समारोह भी राजभवन की जगह शहीदे आजम भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड़ कलां में होगा। इससे पहले CM की शपथ राजभवन में होती रही है। शपथ लेने से पहले मान शहीदी स्मारक पर माथा टेकने भी जाएंगे।
केजरीवाल बोले- मुझे आतंकवादी कहने वालों को जवाब मिला
बंपर जीत के केजरीवाल ने कहा, 'आपने देखा कि पंजाब में कितने बड़े षड्यंत्र किए गए। आखिर में ये सारे इकट्ठे होकर बोले कि केजरीवाल आतंकवादी है। इन नतीजों के जरिए देश की जनता ने बता दिया कि केजरीवाल आतंकवादी नहीं है, केजरीवाल देश का सच्चा सपूत है। केजरीवाल सच्चा देशभक्त है।'
पंजाब के सियासी हालात ग्राफिक्स से समझिए
पंजाब में पिछले 5 चुनाव का वोटिंग ट्रेंड देखें तो कांग्रेस और अकाली दल ही सत्ता में काबिज रहे हैं। वहीं, इस बार वोटिंग में पिछली बार से 5% की कमी आई। पिछले चुनाव यानी 2017 में कांग्रेस ने 77 सीटों पर बंपर जीत हासिल कर सरकार बनाई थी।
पंजाब की राजनीति से जुड़ी 6 दिलचस्प बातें
1. पंजाब ज्यादातर समय कांग्रेस का गढ़ रहा
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 66% था। ये कांग्रेस का दूसरा बड़ा वोट शेयर था। 1992 में कांग्रेस का वोट शेयर 74% था। राज्य के 22 मुख्यमंत्रियों में से 14 मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही रहे हैं।
2. दलित वोट की अहम भूमिका
भारत की रुझान कितने समय तक चलते हैं? अनुसूचित जाति (SC) की आबादी का पंजाब में अनुपात (31.9%) सबसे ज्यादा है। हालांकि जट्ट सिख (जनसंख्या का 20%) यहां की राजनीति पर हावी है। चरणजीत सिंह चन्नी राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री हैं। ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के अंतिम गैर-जाट सिख मुख्यमंत्री (1972-77) थे।
3. मालवा जीतने वाला पंजाब जीतता है
सतलुज नदी के साउथ बेल्ट से पंजाब विधानसभा में 69 सदस्य चुने जाते हैं। आमतौर पर जो भी इस क्षेत्र में जीतता है, उसके पास सरकार बनाने का मौका होता है। हालांकि, 2007 अपवाद रहा था। यहां कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, लेकिन शिअद-भाजपा गठबंधन सत्ता में आया था।
4. भाजपा से पहले अकालियों ने कांग्रेस को धोखा दिया था
स्वतंत्र भारत में पंजाब में बनी पहली सरकार के CM गोपी चंद भार्गव के नेतृत्व में कांग्रेस और अकालियों के बीच गठबंधन हुआ था, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला। सिखों की सुरक्षा की मांग से इनकार के बाद अप्रैल 1949 में सरकार गिर गई थी। इसके चलते राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
5. पंजाब ने भारत को एक PM और राष्ट्रपति दिया, पाक में भी ऐसा ही
पंजाब ने भारत को एक रुझान कितने समय तक चलते हैं? राष्ट्रपति दिया है - ज्ञानी जैल सिंह। जैल सिंह 1982 से 1987 तक राष्ट्रपति रहे। वह भारत के पहले और एकमात्र सिख राष्ट्रपति हैं। पंजाब ने भारत को एक प्रधानमंत्री भी दिया है - डॉ. मनमोहन सिंह जो लगातार दो कार्यकाल तक पद पर थे।
बात पाकिस्तान की करें, तो मुहम्मद जिया-उल-हक 1978 से 1988 तक वहां के राष्ट्रपति रहे। जिया-उल-हक अविभाजित भारत में 1924 में पंजाब राज्य के जालंधर में पैदा हुए थे। पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान खान के परिवार की मां जालंधर की रहने वाली थीं। वे विभाजन के दौरान लाहौर चले गए थे।
6. 1966 के बाद कोई भी गैर-सिख CM नहीं बना
1966 में रुझान कितने समय तक चलते हैं? संसद रुझान कितने समय तक चलते हैं? ने पंजाब पुनर्गठन अधिनियम पारित किया था। इसके बाद मॉडर्न स्टेट ऑफ पंजाब और नए राज्य हरियाणा के निर्माण का रास्ता खुला। तब से लेकर अब रुझान कितने समय तक चलते हैं? तक यहां हर मुख्यमंत्री सिख रहा है।
जीत के जश्न के बीच भाजपा वर्कर पर फूटा गुस्सा
पंजाब में आप की धमाकेदार जीत के बीच जालंधर में भाजपा वर्कर पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। दरअसल, जालंधर के स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में नतीजे देखने पहुंचे एक भाजपा वर्कर की वहां मौजूद कुछ लोगों से बहस हो गई। इसके बाद लोगों ने लात-घूंसों ने न सिर्फ उनकी पिटाई कर दी, बल्कि उनके कपड़े भी फाड़ दिए। भाजपा के विधायक कृष्ण लाल शर्मा ने उन्हें अपनी गाड़ी में बैठाकर भीड़ से बचाया।
Pitru Paksha Shradh 2022 : द्वितीया श्राद्ध कल, नोट कर श्राद्ध- विधि और सामग्री की पूरी लिस्ट
Pitru Paksha : इस समय पितृ पक्ष चल रहा है। कल द्वितीया श्राद्ध है। हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष कहा जाता है। पितृपक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरु हो जाता है।
Pitru Paksha Shradh 2022 : इस समय पितृ पक्ष चल रहा है। कल द्वितीया श्राद्ध है। हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष कहा जाता है। पितृपक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरु होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलते हैं। शास्त्रों अनुसार जिस व्यक्ति की मृत्यु किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष की या कृष्ण पक्ष की जिस तिथि को होती है उसका श्राद्ध कर्म पितृपक्ष की उसी तिथि को ही किया जाता है। शास्त्रों में यह भी विधान दिया गया है कि यदि किसी व्यक्ति को आपने पूर्वजों के देहांत की तिथि ज्ञात नहीं है तो ऐसे में इन पूर्वजों का श्राद्ध कर्म अश्विन अमावस्या को किया जा सकता है । इस के अलावा दुर्घटना का शिकार हुए परिजनों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जा सकता है। आइए जानते हैं, प्रतिपदा श्राद्ध विधि और सामग्री की पूरी लिस्ट.
उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या रिज़र्व सीटों में छिपी है सत्ता की चाबी
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में विधानसभा की आरक्षित सीटें हर राजनीतिक पार्टी के लिए काफ़ी अहम मानी जाती हैं. इसकी वजह है कि रुझान कितने समय तक चलते हैं? पिछले तीन विधानसभा चुनावों में जिस पार्टी ने इन सीटों पर बाज़ी मारी, सरकार उसी पार्टी की बनी.
इस चुनाव में भी राज्य की 86 आरक्षित सीटों पर हर सियासी दल अपने समीकरण तय करने में जुटे हैं. लेकिन सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश की आरक्षित सीटों पर नतीज़ों का इतिहास फिर से खुद को दोहराएगा या नहीं?
इस विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 86 सुरक्षित सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों की हैं. वहीं 2 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं. ये दोनों सीटें राज्य के दक्षिणी-पूर्वी ज़िले सोनभद्र में दुद्धी और ओबरा हैं.
इन सीटों के लिए अब तक लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों का एलान भी कर दिया है.
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सामान्य जातियों के वोट यहां होते हैं निर्णायक
वैसे इन आरक्षित रुझान कितने समय तक चलते हैं? सीटों पर राजनीतिक दलों की रणनीति सामान्य सीटों से अलग होती है, क्योंकि इन सीटों पर उम्मीदवार भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार लगभग सभी जातियों के वोट से तय होती है.
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी के मुताबिक़, ''आरक्षित सीटों पर सभी उम्मीदवार अनुसूचित जाति के होते हैं. इस रुझान कितने समय तक चलते हैं? चलते अनुसूचित जातियों के वोट यहां बंट जाते हैं. ऐसे में दूसरी जातियों के वोट निर्णायक हो जाते हैं. पहले देखा गया है कि जिस पार्टी की लहर होती है, आरक्षित सीटों पर अन्य जातियों के वोट भी उसी पार्टी के खाते में चले जाते हैं''.
ऐसी स्थिति में आरक्षित सीटों पर रुझान कितने समय तक चलते हैं? ग़ैर-अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर राजनीतिक पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है. वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है.
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, ''आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के वोटों का रुझान ही उम्मीदवार की जीत-हार तय करता है. यह देखा गया है कि आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के मतदाताओं के पास विकल्प कम होते हैं. उनके लिए उम्मीदवार से ज़्यादा पार्टी अहम होती है, जबकि सामान्य सीटों पर ऐसा नहीं होता.''
आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे: जानिए लागत से लेकर खासियत तक सब कुछ
उत्तर प्रदेश में कनेक्टिविटी में सुधार करने वाली कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे के बारे में बहुत चर्चा है। जमीन की कीमत को छोड़ दें रुझान कितने समय तक चलते हैं? तो इसे 11,527 करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया था। आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे सिक्स-लेन एक्सेस-कंट्रोल्ड वाली 302.222 किलोमीटर लंबी सड़क परियोजना है, जिसमें भविष्य में आठ लेन तक विस्तार की गुंजाइश है। हाई-स्पीड कॉरिडोर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आगरा से जोड़ता है, जिससे दो जगहों के बीच यात्रा के समय को साढ़े पांच घंटे से घटाकर तीन घंटे कर दिया है। आगरा एक्सप्रेसवे 165 किलोमीटर के यमुना एक्सप्रेसवे से जुड़ कर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक की यात्रा की सुविधा प्रदान करता है।
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