कारखाना विदेशी मुद्रा पश्चिम बंगाल

छोटे किसानों का बड़ा फायदा- बाजार में आएगा बैटरी से चलने वाला ट्रैक्टर, लागत होगी सिर्फ 1 लाख रुपये
अगर आप सोचते हैं कि ट्रैक्टर बहुत महंगा आता है और इसे खरीदना आम किसान के बस में नहीं है, तो अब इस सोच को बदलने का वक्त आ गया है.
सीएसआईआर का नए ट्रैक्टर से छोटे किसानों को फायदा होगा (फोटो- Pixabay).
अगर आप सोचते हैं कि ट्रैक्टर बहुत महंगा आता है और इसे खरीदना आम किसान के बस में नहीं है, तो अब इस सोच को बदलने का वक्त आ गया है. साइंस और टेक्नालॉजी मिनिस्ट्री के तहत आने वाले काउंसिस ऑफ साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) छोटे खेतों के लिये कम पॉवर वाले इलेक्ट्रानिक ट्रैक्टर का विकास कर रहा है. ये ट्रैक्टर घरेलू बाजार में सबसे सस्ता होगा और इसकी कीमत एक लाख रुपये से थोड़ा अधिक होगी.
सीएसआईआर पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर कारखाने में इस ट्रैक्टर का टेस्ट करने जा रही है और उसके बाद ट्रैक्टर बाजार में उपलब्ध होगा. सीएसआईआर-सीएमईआरआई के डायरेक्टर हरीश हीरानी ने कहा, ‘‘ट्रैक्टर में लिथियम बैटरी लगी होगी. इसे एक बार पूरी तरह चार्ज करने पर ट्रैक्टर एक घंटा चलेगा.’’
ट्रैक्टर की लागत के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसे बनाने पर करीब 1 लाख रुपये की लागत आएगी. इसलिए बाजार में इसकी कीमत 1 लाख रुपये से कुछ अधिक होगी. खेतों में सोलर चार्जिंग स्टेशन से ही इन ट्रैक्टर को चार्ज किया जा सकता है. ऐसे में खेती की लागत में भी कमी आएगी.
हरीश हीरानी ने कहा, ‘‘हम 10 एचपी के बैटरी से चलने वाले छोटे ट्रैक्टर बनाने पर काम कर रहे हैं. हम कम वजन के प्रोडक्ट बनाने पर काम कर रहे हैं जो उन किसानों के लिए फायदेमंद हों, जिनके पास छोटे खेत हैं.’’
सीएसआईआर-सीएमईआरआई इससे पहले स्वराज और सोनालिका जैसे ट्रैक्टर का विकास कर चुकी है. इससे पहले संस्था ने छोटे किसानों के लिए 10 हार्स पावर का ट्रैक्टर - कृषि शक्ति बनाया है, जिसमें डीजल इंजन है. अब इसी तर्ज पर बैटरी से चलने वाले ट्रैक्टर को बाजार में लाने की योजना है.
भारत में जूट उद्योग
भारत में जूट वस्त्र या जूट उद्योग अत्यधिक स्थानीय उद्योग हैं। देश की स्वतंत्रता के समय बहुत कम जूट उद्योग थे और इनकी संख्या आनुपातिक रूप से वर्षों में काफी बढ़ी है। भारत की जूट मिलें बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं। पश्चिम बंगाल में कोलकाता और नैहाटी देश में जूट मिलों के अधिकतम अनुपात के लिए जिम्मेदार हैं। नैहाटी की जूट मिलों को हुगली नदी के किनारे स्थापित किया गया है। यह भारत में प्रमुख जूट उत्पादों के विनिर्माण केंद्रों में से एक है। देश में पहली जूट मिल 1859 की शुरुआत में स्थापित की गई थी। इसकी स्थापना कुछ ब्रिटिश उद्योगपतियों ने की थी। एक निर्यात उन्मुख उद्योग होने के नाते, इसका बहुत तेजी से विस्तार हुआ था। देश के विभाजन के बाद अधिकांश मिलें भारत में बनी रहीं, लेकिन कुल जूट उत्पादक क्षेत्र का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा पड़ोसी देश बांग्लादेश में चला गया। हुगली नदी के तट के पास स्थित जूट उद्योग के अलावा, भारत में एक जूट मिल के कई अन्य केंद्र हैं। देश की स्वतंत्रता से पहले, देश के जूट मिलों को उत्तर पूर्वी राज्यों में से कुछ के द्वारा कच्चे जूट की आपूर्ति की गई थी। लेकि, इसकी आजादी के बाद कुल क्षेत्र का बड़ा हिस्सा बांग्लादेश चला गया और इसीलिए भारत को हर साल भारी मात्रा में जूट का आयात करना पड़ता है। जूट उद्योग ने एक समय में सम्मानजनक विदेशी मुद्रा अर्जित की। निर्यात बाजार में बढ़ती लागत और शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता समस्याएं खड़ी करती हैं। कपड़ा उद्योग के तहत इसका निर्यात मुनाफा समावेशी है। वर्तमान में देश के जूट उद्योग उच्च घनत्व वाले पॉलीथीन से बने अपेक्षाकृत सस्ते सिंथेटिक औद्योगिक पैकिंग कपड़ों से प्रतिस्पर्धा के कारण कठिन समय से गुजर रहे हैं। जूट की कीमत में भारी वृद्धि और जूट कारखानों की कम उत्पादकता देश में जूट उद्योगों की दुर्दशा के पीछे अन्य प्रमुख कारक हैं।
जानें- भारत में कहां छपते हैं नोट, कहां से आता है कागज और स्याही
चीन में भारत के नोट छपने की खबर आने के बाद नोट की छपाई चर्चा में आ गई है. विपक्ष ने इस खबर को लेकर सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है, जबकि केंद्र सरकार ने साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की इस रिपोर्ट को निराधार बताया है. सरकार का कहना है कि भारतीय रुपये सिर्फ भारत सरकार के प्रिंटिंग प्रेस में ही छापे जा रहे हैं. ऐसे में जानते हैं आखिर भारतीय नोटों की छपाई कहां होती है और इसकी स्याही-पेपर की व्यवस्था कहां से की जाती है.
बता दें कि भारतीय करेंसी के नोट भारत सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा छापे जाते हैं और यह सिर्फ सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में ही छापे जाते हैं. देशभर में चार प्रिंटिंग प्रेस हैं, जहां नोट छापे जाते हैं और सिक्के भी चार मिंट में बनाए जाते हैं.
ऐसा रहा नोट का इतिहास- ब्रिटिश सरकार ने साल 1862 में पहला नोट छापा था, जो कि यूके की एक कंपनी द्वारा छापे जाते थे. करीब 200 साल बाद 1920 में ब्रिटिश सरकार ने नोट को भारत में छापने का फैसला किया.
भारत में नोट छापने के उद्देश्य से साल 1926 में सरकार ने महाराष्ट्र के नासिक में एक प्रिंटिंग प्रेस शुरू की. जिसमें 100, 1000 और 10 हजार के नोट छापने का काम किया जा रहा था. हालांकि कुछ नोट इंग्लैंड से मंगाए जा रहे थे.
साल 1947 में भारत के आजाद होने तक नोट छापने का जरिया नासिक प्रेस ही थी. उसके बाद साल 1975 में भारत की दूसरी प्रेस मध्यप्रदेश के देवास में शुरू की गई. उसके बाद साल 1997 तक इन दो प्रेस से नोट छापे जा रहे थे.
साल 1997 में भारत में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए सरकार ने अमेरिका, कनाडा और यूरोप की कंपनियों से नोट मंगवाने शुरू किए. उसके बाद 1999 में मैसुर और 2000 में सलबोनी (पश्चिम बंगाल) में प्रेस शुरू की गई है.
अब भारत में चार नोट छापने की प्रेस है. इसमें देवास की बैंक नोट प्रेस और नासिक की करेंसी नोट प्रेस वित्त मंत्रालय के अधीन काम करने वाली सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के नेतृत्व में काम करते हैं. वहीं मैसूर और सलबोनी के प्रेस भारतीय रिजर्व बैंक की सब्सिडियरी कंपनी भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड के अधीन काम करते हैं.
वहीं इंडियन गॉवर्मेंट मिंट (मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, नोएडा) में सिक्के, सरकारी मेडल और अवार्ड आदि बनाए जाते हैं.
कहां से पेपर आता है- वैसे तो भारत की भी एक पेपर मिल सिक्योरिटी पेपर मिल (होशंगाबाद) है. ये नोट और स्टांप के लिए पेपर बनाती है. हालांकि भारत के नोट में लगने वाला अधिकतर पेपर र्मनी, जापान और यूके से आयात किया जाता है. आरबीआई अधिकारियों के अनुसार 80 फीसदी नोट विदेशी कागज पर छपते हैं.
कहां से आती है स्याही- भारत के नोट में लगने वाली स्पेशल स्याही स्विजरलैंड की कंपनी SICPA से आयात की जाती है और यह कंपनी कई देशों को स्याही निर्यात करती है. इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वदेशी इंक और पेपर बनाने के लिए कहा था. कहा जाता है कि इसमें इंटैगलियो, फ्लूरोसेंस और ऑप्टिकल वेरिएबल इंक का इस्तेमाल होता है.
किस नोट की छपाई पर कितना खर्च- मीडिया रिपोर्ट के अनुसार आरटीआई में खुलासा हुआ था कि 5 रुपए के नोट में 50 पैसे, 10 रुपए के नोट में 0.96 पैसे, 50 के नोट में 1.81 रुपए और 100 के नोट में 1.79 रुपए की लागत आती है.
तमिलनाडु में सर्वाधिक सूती वस्त्र के कारखाने कहां पाए जाते हैं?
भारत में पहली सफल आधुनिक सूती वस्त्र मिल की स्थापना वर्ष 1854 में, मुम्बई में कावसजी डाबर द्वारा की गई थी। वर्तमान समय में यह उद्योग अधिक विस्तृत हो चुका है। भारत के सभी राज्यों में, विशेषकर उन राज्यों में जहां भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल हैं एवं कपास की प्रचुरता है, सूती वस्त्र मिलें स्थापित की गई हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक एवं केरल सहित अन्य राज्यों में सूती वस्त्र मिलें स्थापित हैं। तमिलनाडु में सर्वाधिक मिलें कोयंबटूर में स्थापित की गई हैं। . अगला सवाल पढ़े
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यूक्रेन में लगे ब्रेक के बाद देश में निर्मित होंगे वंदे भारत के 200 स्लीपर कोच
शेयर बाजार 01 मई 2022 ,13:45
© Reuters. यूक्रेन में लगे ब्रेक के बाद देश में निर्मित होंगे वंदे भारत के 200 स्लीपर कोच
में स्थिति को सफलतापूर्वक जोड़ा गया:
नई दिल्ली, 1 मई (आईएएनएस)। रेलवे के आत्मनिर्भर भारत के तहत तैयार की जा रही वंदे भारत पर यूक्रेन के ब्रेक लगाने की चर्चा के बीच, इस ट्रेन को स्लीपर वर्जन में लाने के लिए 200 वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेनों के कारखाना विदेशी मुद्रा पश्चिम बंगाल लिए निविदा आमंत्रित किया गया है जोकि लातूर कारखाने में बनेंगे।दरअसल सिटिंग चेयर के बाद अब भारतीय रेल स्लीपर कोच वाली तेज रफ्तार 200 नई वंदे भारत ट्रेन चलाएगी। जिनका निर्माण लातूर के कारखाने में किया जायेगा। इन ट्रेनों को भारतीय रेलवे प्राइवेट प्लेयर्स की मदद से तैयार कराएगी। इन 200 वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेनों की कुल लागत तकरीबन 26,000 करोड़ रुपए के आसपास रहेगी। स्लीपर कोच वाली वंदे भारत एक्सप्रेस राजधानी ट्रेनों की जगह चलाई जाएंगी। इसी चरण में हाल ही में केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने खजुराहो से वंदे भारत एक्सप्रेस के प्रचालन की घोषणा की। हालांकि वंदे भारत के निर्धारित समय से देर से शुरू होने का अनुमान लगाया जा रहा है।
भारत ने यूक्रेन में आधारित कंपनी को 36,000 पहियों के लिए 16 मिलियन डॉलर की कीमत पर ऑर्डर दिए थे। यूक्रेन पहियों का दुनिया के सबसे बड़े सप्लायर्स में से एक है। यूक्रेन में युद्ध शुरू होने के बाद ज्यादातर कर्मचारियों व कंपनियों ने नए उत्पादन को बंद कर दिया है। वंदे भारत में लगने वाले इन पहियों को यूक्रेन के ब्लैक सी पोर्ट से महाराष्ट्र के जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट तक लाने की योजना थी, लेकिन अब इसमें देरी होगी। समय पर डिलिवरी नहीं होने से 7,500 करोड़ रुपए का यह प्रोजेक्ट अटक गया है।
इस बीच रेल राज्यमंत्री दर्शनाबेन जरदोश ने कहा कि यूक्रेन से व्हील और एक्सल को जहाज व विमान से मंगाने पर विचार किया जा रहा है।
फिलहाल यूक्रेन से पड़ोसी देश रोमानिया लाकर अब तक तैयार हुए 128 पहियों को वहां से एयर लिफ्ट कराया जायेगा। जिसकी मदद से वंदे भारत का ट्रायल शुरू किया जायेगा। सूत्रों के अनुसार, यूक्रेन में युद्ध के चलते अब भारत ने स्पीड ट्रेनों में लगने वाले पहियों के आर्डर चेक गणराज्य, पोलैंड और अमेरिका को दे दिए हैं। अन्य देशों के साथ आर्डर देने के कदम से खरीद की लागत काफी हद तक बढ़ जाएगी।
हालांकि चैन्नई में स्थित इंटरनल कोच फैक्ट्री के पूर्व जनरल मैनेजर सुधांशु मणि के अनुसार, रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से सप्लाई को लगा झटका रेलवे के लिए बड़ी रूकावट नहीं है। पहियों का रैक वैसे भी मई से पहले नहीं आने वाला था। और अब यह जून या जुलाई के करीब ही आएगा। अगर पहले रैक के लिए न्यूनतम 128 पहियों की जरूरत पड़ती है, तो वे ट्रायल शुरू कर सकते हैं और वे यूक्रेन से रोमानिया के जरिए डिलीवरी को तेज करने की कोशिश कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल की रेलवे फैक्ट्री में यह व्हील तैयार हो सकते हैं लेकिन क्षमता कम होने के कारण यूक्रेन की एक कंपनी को इस कार्य का ऑर्डर दिया गया था।
गौरतलब है कि रेलवे ने स्लीपर वंदे भारत में तीन क्लास चलाने का फैसला किया है। फस्र्ट एसी, सेकेंड एसी और थर्ड एसी। इसके अलावा स्लीपर वंदे भारत एक्सप्रेस में डिब्बों की संख्या भी अलग-अलग होगी। बताया जा रहा है कि भारतीय रेल 16, 20 और 24 डिब्बों वाली स्लीपर वंदे भारत एक्सप्रेस चलाने की योजना बना रही है। भारतीय रेल ने 200 स्लीपर वंदे भारत एक्सप्रेस के लिए टेंडर जारी किया है। टेंडर की आखिरी तारीख 26 जुलाई 2022 निर्धारित की गई है। मौजूदा वंदे भारत एक्सप्रेस के अपग्रेडेशन का काम महाराष्ट्र के लातूर में स्थित मराठवाड़ा रेल कोच फैक्टरी में किया जाएगा या फिर चेन्नई के इंटीग्रल कोच फैक्टरी में किया जाएगा।
वहीं स्लीपर वंदे भारत एक्सप्रेस अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होगी। ये स्लीपर ट्रेन यात्रियों को लेकर 160 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से पटरियों पर दौड़ेगी और टेस्टिंग के दौरान इसकी स्पीड 180 किलोमीटर प्रति घंटा होगी। रेल मंत्रालय स्लीपर सुविधाओं वाली 200 वंदे भारत ट्रेनों की तीसरी खेप की खरीद की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए रेलवे ने 24,000 करोड़ रुपये का टेंडर जारी किया है। इससे पहले केंद्रीय बजट 2022-23 में 400 और वंदे भारत ट्रेनों की खरीद की घोषणा की गई थी। बजट प्रावधान के अनुसार, 16 डिब्बों वाली एक वंदे भारत ट्रेन पर 120 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।
हालांकि अब तक, रेलवे ने 102 वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेनों को केवल बैठने की व्यवस्था के साथ चुना है। जबकि रेलवे पहले ही इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में 44 वंदे भारत ट्रेनों के निर्माण के लिए मेधा को ठेका दे चुका है, ऐसी 58 और ट्रेनों की खरीद के लिए बोली प्रक्रिया अभी जारी है।
संस्करण -3 के रूप में कहा जाता है कि वंदे भारत की यह बहुत सारी ट्रेनें हल्की, ऊर्जा-कुशल और अतिरिक्त यात्री सुविधाओं के साथ अधिक आधुनिक सुविधाओं से लैश होंगी। साथ ही वंदे भारत एक्सप्रेस में यात्री परम्परागत रेडियो संगीत का लाभ उठा सकेंगे। वंदे भारत एक्सप्रेस के लिए बोली लगाने वालों को एल्युमीनियम और स्टील दोनों तरह के डिब्बों के विकल्प दिए जाएंगे। आगामी 200 वंदे भारत सेवा में एसी-1, एसी-2 और एसी-3 कक्षाएं होंगी।
लेकिन अगर निर्माता स्टील का विकल्प चुनता है, तो उसे पहले वाले से कम वजन का होना चाहिए क्योंकि नई तकनीक के उपयोग के साथ हल्के वजन वाले बोगी, ट्रांसफार्मर और मोटर आदि के लिए विनिर्देश तैयार किए जा रहे हैं।
संस्करण -3 वंदे भारत रात भर की यात्रा के लिए है और इसके चरणों में राजधानी और दुरंतो सेवाओं को बदलने की संभावना है।
वंदे भारत एक्सप्रेस की शुरूआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में वाणसी से नई दिल्ली के बीच की थी। इसे ट्रेन कारखाना विदेशी मुद्रा पश्चिम बंगाल 18 के नाम से भी जाना जाता है। यह देश की अपनी तरह की पहली और सबसे तेज चलने वाली ट्रेन है। इसका लुक बुलेट ट्रेन से मिलता-जुलता है।